अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जोसेफ़ बाइडेन ने पेरिस जलवायु समझौते में, फिर से शामिल होने की घोषणा की है. पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने, वर्ष 2020 में, अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से हटा लिया था. इस सन्दर्भ में, पेरिस जलवायु समझौता एक बार फिर से ज़ोरदार चर्चा में आ गया है. यहाँ प्रस्तुत है - कुछ बुनियादी जानकारी.
पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी मुद्दों पर, देशों के लिये, क़ानूनी रूप से बाध्यकारी एक अन्तरराष्ट्रीय सन्धि है.
ये समझौता वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक जलवायु सम्मेलन (कॉप-21) के दौरान, 196 पक्षों की ओर 12 दिसम्बर को पारित किया गया था. 4 नवम्बर 2016 को यह समझौता लागू हो गया था.
पेरिस समझौते का लक्ष्य औद्योगिक काल के पूर्व के स्तर की तुलना में वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना है, और 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिये विशेष प्रयास किये जाने हैं.
तापमान सम्बन्धी इस दीर्घकालीन लक्ष्य को पाने के लिये देशों का लक्ष्य, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के उच्चतम स्तर पर जल्द से जल्द पहुँचना है ताकि उसके बाद, वैश्विक स्तर उसमें कमी लाने की प्रक्रिया शुरू की जा सके.
इसके ज़रिये 21वीं सदी के मध्य तक कार्बन तटस्थता (नैट कार्बन उत्सर्जन शून्य) हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है. जलवायु कार्रवाई के लिये बहुपक्षीय प्रक्रिया में पेरिस समझौता एक अहम पड़ाव है.
पहली बार क़ानूनी रूप से बाध्यकारी एक समझौते के तहत सभी देशों को, साझा उद्देश्य की पूर्ति हेतु साथ लाया गया है ताकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटा जा सके और अनुकूलन के प्रयास सुनिश्चित किये जा सकें.
पेरिस समझौते को लागू करने के लिये, सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित, रूपान्तरकारी आर्थिक व सामाजिक रूपान्तरकारी बदलावों की आवश्यकता है.
पेरिस समझौता पाँच-वर्षीय चक्र पर केन्द्रित है, जिसके तहत देश महत्वाकाँक्षी जलवायु कार्रवाई का दायरा बढ़ाते जाते हैं.
वर्ष 2020 तक देशों ने जलवायु कार्रवाई के लिये अपनी योजनाएँ पेश की हैं, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions (NDCs) कहा जाता है.
UN News/Laura Quinones तापमान बढ़ने के साथ-साथ जलवायु संकट भी बढ़ रहा है.एनडीसी
राष्ट्रीय जलवायु कार्रवाई योजनाओं (NDCs) में देश, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों में कटौती करने के लिये अपनी योजनाओं व कार्रवाई के बारे में जानकारी पेश करते हैं ताकि पेरिस समझौते में निर्धारित लक्ष्य हासिल किये जा सकें. इन योजनाओं में देश, तापमान में बढ़ोत्तरी से होने वाले प्रभावों से निपटने के लिये सहनक्षमता के निर्माण के लिये उपायों की भी जानकारी पेश करते हैं.
दीर्घकालीन रणनीति
दीर्घकालीन लक्ष्यों की दिशा में प्रयासों को बेहतर ढंग से संगठित करने के लिये, पेरिस समझौते में देशों को कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिये अपनी रणनीतियों के बारे में जानकारी साझा करने के लिये आमन्त्रित किया गया है.
इस रणनीति को Long-term low greenhouse gas emission development strategies (LT-LEDS) नाम दिया गया है.
LT-LEDS के ज़रिये राष्ट्रीय जलवायु कार्रवाई योजनाओं से, लम्बे समय बाद होने वाले असर को क्षितिज पर, यानि व्यापक दायरे में देखने का उद्देश्य रखा गया है. लेकिन एनडीसी की तरह वे अनिवार्य नहीं हैं.
इसके बावजूद ये, देशों की दीर्घकालीन योजनाओं और विकास प्राथमिकताओं का एक अहम घटक हैं, जिनसे भावी विकास योजनाओं के बारे में दिशा और दूरदृष्टि निर्धारित होती है.
पेरिस समझौते में वित्तीय, तकनीकी और क्षमता निर्माण सम्बन्धी मदद के लिये एक ढाँचा बनाया गया है.
वित्त
पेरिस समझौते में मज़बूती से स्पष्ट किया गया है कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई में, निर्बल व ज़रूरतमन्द देशों की मदद के लिये आगे आना होगा.
OCHA/Saviano Abreu चक्रवाती तूफ़ान कैनेथ से हुई तबाही का दृश्य.साथ ही अन्य पक्षों द्वारा स्वैच्छिक योगदानों के लिये प्रोत्साहन दिया गया है, जोकि पहली बार है.
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कम करने लिये वित्तीय संसाधनों (Climate finance) की आवश्यकता है, क्योंकि उत्सर्जनों में व्यापक कटौती के लिये व्यापक स्तर पर निवेश ज़रूरी है.
वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिये अनुकूलन प्रयासों को मज़बूती देने के नज़रिये से भी अहम है.
टैक्नॉलॉजी
पेरिस समझौते में तकनीकी विकास और हस्तान्तरण को पूर्ण रूप से साकार करने की बात कही गई है ताकि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ सहनक्षमता को बेहतर बनाया जा सके और कार्बन उत्सर्जनों में कटौती की जा सके.
इसके तहत एक टैक्नॉलॉजी फ़्रेमवर्क बनाया गया है ताकि बेहतर ढँग से संचालित टैक्नॉलॉजी ढाँचे को दिशानिर्देश प्रदान किये जा सकें.
इस तन्त्र का लक्ष्य टैक्नॉलॉजी विकास की रफ़्तार को तेज़ करना और नीतिगत उपायों के ज़रिये उनका हस्तान्तरण सम्भव बनाना है.
क्षमता निर्माण
सभी विकासशील देशों के पास जलवायु परिवर्तन से उपजने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिये पर्याप्त क्षमता नहीं है.
इसके परिणामस्वरूप, पेरिस समझौते में जलवायु-सम्बन्धी क्षमता निर्माण पर विशेष ध्यान दिया गया है. इस क्रम में विकसित देशों से आग्रह किया गया है कि विकासशील देशों में क्षमता निर्माण के लिये ज़्यादा से ज़्यादा समर्थन सुनिश्चित किया जाना होगा.
पेरिस समझौते के साथ ही देश सम्वर्धित पारदर्शिता फ़्रेमवर्क (Enhanced Transparency Framework) स्थापित कर रहे है.
वर्ष 2024 में शुरू होने वाले फ़्रेमवर्क (ETF) के तहत देश पारदर्शी ढंग से जलवायु परिवर्तन अनुकूलन प्रयासों, कार्बन उत्सर्जन में कटौती के उपायों और सहायता सम्बन्धी प्रगति के बारे में जानकारी साझा करेंगे.
इस सम्बन्ध में जमा की जाने वाली रिपोर्टों की समीक्षा के लिये, अन्तरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं की भी व्यवस्था है.
फ़्रेमवर्क के ज़रिये एकत्रित जानकारी का उपयोग वैश्विक स्तर पर मूल्याँकन में किया जाएगा जिससे दीर्घकालीन जलवायु लक्ष्यों को पाने में सामूहिक प्रगति की समीक्षा की जाएगी.
इससे जलवायु कार्रवाई योजनाओं के अगले दौर के लिये ज़्यादा महत्वाकाँक्षी लक्ष्यों के सम्बन्ध में सिफ़ारिशें पेश करने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकेगा.